राजस्थानी भाषा के संरक्षण व संवर्द्धन के लिए ‘राजस्थानी भाषा एवं साहित्य शोध केन्द्र’ की स्थापना- प्रो. त्रिपाठी,
लाडनूं में राजस्थानी भाषा अकादमी के सप्त दिवसीय अन्तर्राष्ट्रीय राजस्थानी समर स्कूल का प्रारम्भ
जगदीश यायावर। लाडनूं (kalamkala.in)। जैन विश्वभारती संस्थान में राजस्थानी भाषा अकादमी के तत्वावधान में आयोजित सप्त दिवसीय अन्तर्राष्ट्रीय राजस्थानी समर स्कूल कार्यक्रम में राजस्थानी भाषा एवं साहित्य पर विमर्श के दौरान राजस्थान के समृद्ध इतिहास, संस्कृति वं परम्पराओं की उत्कृष्टता पर चर्चा की गई। कार्यक्रम में दूरस्थ एवं आॅन लाईन शिक्षा केन्द्र के निदेशक प्रो. आनन्द प्रकाश त्रिपाठी ने अपने वक्तव्य में जैन विश्वभारती संस्थान की प्राच्य विद्या एवं राजस्थानी भाषा के लिए किए जा रहे प्रयासों के बारे में बताते हुए कहा कि यहां मूल्यपरक शिक्षा को बढावा देने के साथ ही राजस्थानी भाषा के महत्व को भी समझा गया है। इसी कारण यहां राजस्थानी भाषा के संरक्षण व संवर्द्धन के लिए अपनी भूमिका निभाते हुए संस्थान में ‘राजस्थानी भाषा एवं साहित्य शोध केन्द्र’ की स्थापना की गई। कुलपति प्रो. बच्छराज दूगड़ के नेतृत्व में यहां विभिन्न अकादमिक कार्यों की आयोजना निरन्तर की जा रही है। कार्यक्रम के प्रारम्भ में सभी प्रतिभागियों ने अपना-अपना परिचय प्रस्तुत किया।
राजस्थानी छंदो व काव्य का विश्लेषण प्रस्तुत किया
राजस्थानी भाषा अकादमी के विशेष कोठारी ने राजस्थान की पृष्ठभूमि बताते हुए उसमें लाडनूं के परिचय व महत्व को भी बताया और यह महत्वपूर्ण कार्यक्रम लाडनूं में रखे जाने का औचित्य भी बताया। द्वितीय सत्र में दलपत राज पुरोहित ने एक राजस्थानी पांडुलिपि ‘सतीनामा’ कावाचन करवाया एवं उसमें वर्णित भावों की व्याख्या की। साथ ही उन्होंने इस पांडुलिपि में आए साहित्यिक तत्वों पर भी प्रकाश डाला। तृतीय सत्र में डा. गजादान चारण ने राजस्थानी साहित्य की विविध विधाओं पर प्रकाश डालते हुए राजस्थानी छंदों एवं अन्य काव्य-तत्वों को व्याख्यायित किया। इसके बाद जैती जैचंद कृत ‘माताजी की वचनिका’ ग्रंथ का वाचयन करते हुए इसकी विशेषताओं पर प्रकाश डाला।
दुर्लभ पांडुलिपियां देख हुए प्रसन्न
चतुर्थ सत्र में सभी प्रतिभागियों ने जैन विश्वभारती संस्थान परिसर का भ्रमण किया। उन्होंने यहां वर्द्धमान ग्रंथागार केन्द्रीय पुस्तकालय में विभिन्न विषयों के दुर्लभ ग्रंथों का अवलोकन किया। साथ ही पांडुलिपियों के विशेष संग्रह को देख कर उनके संरक्षण एवं संवर्द्धन की प्रक्रिया को समझा। सभी प्रतिभागियों ने विशाल पांडुलिपि-संग्रह को देख कर अचरज व्यक्त किया और सराहना करते हुए इसे दुर्लभ बताया। प्रतिभागियों को यह भ्रमण करवाने व मार्गदर्शन करवाने में प्रो. जिनेन्द्र कुमार जैन, प्रो. समणी कुसुमप्रज्ञा, प्रो. बीएल जैन, डा. सत्यनारायण भारद्वाज, निखिल राठौड़, डा. रामदेव साहू व डा. प्रद्युम्नसिंह शेखावत साथ में रहे।