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तमिळ वेद ‘तुरुक्कुरळ’ एवं राजस्थानी साहित्य की समानता के सूत्रों पर शोधपत्र प्रस्तुत, डॉ. गजादान चारण ने सप्तदिवसीय तिरुक्कुरळ अनुवाद राष्ट्रीय कार्यशाला में की शिरकत

तमिळ वेद ‘तुरुक्कुरळ’ एवं राजस्थानी साहित्य की समानता के सूत्रों पर शोधपत्र प्रस्तुत,

डॉ. गजादान चारण ने सप्तदिवसीय तिरुक्कुरळ अनुवाद राष्ट्रीय कार्यशाला में की शिरकत

चैन्नई (kalamkala.in)। मानव संसाधन विकास मंत्रालय भारत सरकार के उपक्रम ’केंद्रीय शास्त्रीय तमिळ संस्थान, चेन्नई’ की ओर से सप्तदिवसीय तिरुक्कुरळ अनुवाद राष्ट्रीय कार्यशाला का आयोजन 3 से 9 अक्टूबर तक किया गया। यह राष्ट्रीय कार्यशाला में ईसा पूर्व पहली शताब्दी के प्रसिद्ध संत तिरुवल्लुवर कृत ’तिरुक्कुरळ’ ग्रंथ के भारतीय एवं विदेशी भाषाओं में अनुवाद की वृहद परियोजनान्तर्गत अनुवाद कार्य की प्रामाणिकता एवं पारंगति का लक्ष्य रखकर आयोजित की गई। कार्यशाला में राजस्थानी भाषा के प्रतिनिधि विद्वान के रूप में डॉ. गजादान चारण ने सहभागिता कर ’तमिळ वेद तिरुक्कुरळ एवं राजस्थानी साहित्य की समानता के सूत्र’ विषयक अपना शोधपत्र प्रस्तुत किया। कार्यशाला में प्रतिदिन 4-4 तकनीकी सत्र आयोजित हुए, जिनमें अलग-अलग भाषाओं के विद्वानों ने अपनी-अपनी मातृ भाषाओं की विशिष्टताओं का परिचय प्रस्तुत करते हुए, उनकी अनुवाद क्षमता की सोदाहरण विवेचना की।

राजस्थानी स्वतंत्र, समृद्ध एवं प्राचीन भाषा

डॉ. गजादान चारण ‘शक्तिसुत’ ने कार्यशाला में अपनी मातृभाषा राजस्थानी का परिचय देते हुए तमिल वेद के नाम से प्रसिद्ध ’तिरुक्कुरळ’ ग्रन्थ के धर्म, अर्थ एवं काम खंडों की वैचारिक चिंतना से राजस्थानी साहित्य चिंतना की भाव सादृश्यता को बताते हुए डिंगल काव्य के प्रासंगिक उदाहरणों से वर्तमान मानव के लिए तिरुक्कुरळ की उपादेयता को सिद्ध किया। उन्होंने तिरुक्कुरळ में वर्णित ईस, मेघ, दान, सहधर्मिणी, सुयश एवं कीर्ति की व्यावहारिक व्याख्या करते हुए उनकी राजस्थानी साहित्य से समानता को उद्घाटित किया और राजस्थानी भाषा एवं उसके साहित्य की विरल विशिष्टताओं की सोदाहरण जानकारी दी। डॉ. चारण ने कहा कि राजस्थानी एक स्वतंत्र, समृद्ध एवं प्राचीन भाषा है, जिसने अपनी विकासयात्रा के 1500 साल पूर्ण किए हैं। सम्पूर्ण भारतीय भाषाओं को शौर्य के संस्कार देने वाली भाषा राजस्थानी है। इसी भाषा मे रचित ’पृथ्वीराज रासो’ को हिंदी के प्रथम महाकाव्य का गौरव प्राप्त है, तो इसी भाषा के ग्रन्थों के आधार पर हिंदी के आदिकाल को आचार्य रामचंद्र शुक्ल ‘वीरगाथा काल’ नाम देते हैं। इस भाषा का सवा दो लाख शब्दों वाला वृहद शब्दकोश प्रकाशित है। इसका अपना स्वतंत्र एवं सम्पन्न व्याकरण है, वृहद छंद शास्त्र है। इस भाषा के छंद प्रपाठ को सुनकर विश्वकवि रवींद्रनाथ ठाकुर रोमांचित हो उठे थे।

ताड़पत्रों पर तिरूक्कुरल में मंदिरों की भूमिका रही

कार्यशाला के उद्घाटन सत्र के मुख्य अतिथि भारतीय प्रशासनिक सेवा के सेवानिवृत्त अधिकारी एवं तमिळ तथा हिंदी के विद्वान डॉ. पी.वी. जगनमोहन रहे, जिन्होंने विभिन्न भारतीय भाषाओं के प्रतिनिधि अनुवादकों को संबोधित करते हुए तमिळ वेद तिरुक्कुरळ की विषयवस्तु, भाषा, शैली, उद्देश्य एवं मानवीय जीवनदृष्टि को उद्घाटित किया। उन्होंने भारतीय ज्ञाननिधि की वाचिक परंपरा से लेकर लिपि निर्माण एवं विकास की अनवरत यात्रा की जानकारी देते हुए ताड़पत्रों पर लिखित ग्रन्थों के संरक्षण में तमिलनाडु के बहुउद्देश्यीय मंदिरों की भूमिका पर प्रकाश डाला।

व्यक्ति को मानवीय मूल्यों से पूर्ण करने का माध्यम

समापन सत्र में कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे संस्थान के निदेशक डॉ. आर. चंद्रशेखरन ने केंद्रीय शास्त्रीय तमिळ संस्थान एवं उसके कार्यों की जानकारी देने के साथ ही तिरुक्कुरळ को मानव जीवन की आचार संहिता बताया तथा कहा कि यह ग्रंथ एक इंसान को मानवीय मूल्यों से पूर्ण करने का सटीक माध्यम है। इस ग्रन्थ की विषयवस्तु एवं प्रतिपाद्य सम्पूर्ण मानवता है। उन्होंने कहा कि उनका सपना है कि हमारे संस्थान द्वारा तिरुक्कुरळ सहित तमिळ के अन्य विशिष्ठ ग्रन्थों का सम्पूर्ण भारतीय भाषाओं ही नहीं चर्चित बोलियों में भी अनुवाद करवाया जाए, इस दिशा में राजस्थानी, काशिका एवं ब्रज जैसी 8वीं अनुसूची से बाहर वाली भाषाओं में अनुवाद का कार्य प्रारंभ होना हमें उत्साहित करता हैं।

35 भाषाओं में अनूदित और 30 भाषाओं में परियोजना स्वीकृत

कार्यक्रम में संस्थान की रजिस्ट्रार डॉ. रे. भुवनेश्वरी एवं समन्वयक डॉ. अळगुमुत्तु ने संस्थान की नियमित एवं विशिष्ट गतिविधियों की जानकारी देते हुए तमिळ साहित्य के विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनुवाद की आवश्यकता एवं उपयोगिता को रेखांकित किया। तमिळ-हिंदी के वरेण्य विद्वान डॉ. एम. गोविंदराजन ने तिरुक्कुरळ अनुवाद से जुड़ी विकासयात्रा की जानकारी देते हुए बताया कि इस ग्रन्थ का अब तक 35 भारतीय एवं विदेशी भाषाओं में अनुवाद होकर प्रकाशित हो चुका है। इसी कड़ी में वर्तमान में भी 30 से अधिक भारतीय भाषाओं में इस ग्रंथ के अनुवाद हेतु सीआइसीटी की ओर से परियोजनाएं स्वीकृत की गई है। उन्होंने मंचासीन अतिथियों सहित विभिन्न भाषाओं के प्रतिनिधि संभागी विद्वानों का आभार ज्ञापित करते हुए बताया कि इस कार्यशाला में तिरुक्कुरळ का ’संस्कृत, तेलगु, ब्रज, काशिका, सिंधी, बघेली, राजस्थानी, हरियाणवी, मैथिली, बंगला, कन्नड़, अवधी, कश्मीरी, डोगरी, छत्तीसगढ़ी, कुमाउँनी, गढ़वाड़ी, मेवाड़ी, कच्छी, उर्दू, संथाली, उड़िया’ आदि भारतीय भाषाओं में अनुवाद करने वाले विद्वान ने सहभागिता की है।

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