जैविभा विश्वविद्यालय के कुलपति रहे प्रो. लोढा को मिला लाईफटाईम अचीवमेंट अवार्ड,
फंगस वैज्ञानिक प्रो. भोपालचंद लोढा को माइकोलॉजी के क्षेत्र में योगदान के सम्मान में ‘लाईफटाईम अचीवमेंट अवार्ड’ से नवाजा गया
लाडनूं (kalamkala.in)। माइकोलॉजिकल सोसाइटी ऑफ इंडिया (एमएसआई) ने पूर्व कुलपति एवं फंगस वैज्ञानिक प्रो. भोपालचंद लोढा को माइकोलॉजी के क्षेत्र में उनके योगदान के सम्मान में ‘लाईफटाईम अचीवमेंट अवार्ड’ से नवाजा है। प्रो. लोढा लाडनूं के जैन विश्वभारती विश्वविद्याल के 1997 से 2001 तक कुलपति रह चुके हैं। यह सम्मान उन्हें जोधपुर में माइकोलॉजिकल सोसाइटी ऑफ इंडिया एवं जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वावधान में ‘फंगल फ्रंटियर्स’ विषय पर आयोजित तीन दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के दौरान प्रदान किया गया। संगोष्ठी में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालोजी (आईआईटी) जोधपुर के निदेशक प्रो. अविनाश कुमार अग्रवाल और जोधपुर विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. केएल श्रीवास्तव द्वारा अभिनंदन किया गया। माइकोलॉजिकल सोसाइटी ऑफ इंडिया (एमएसआई) के सचिव द्वारा प्रो. बीसी लोढा को प्रदत्त प्रशस्ति पत्र का पठन किया गया। प्रो. लोढा को इससे पूूर्व ‘आचार्य तुलसी अनेकांत अवार्ड’ एवं ‘लीडिंग साइंटिस्ट ऑफ वर्ल्ड 2011’ सम्मान भी प्राप्त हो चुके हैं। यह अवार्ड दिए जाने पर प्रो. लोढ़ा को जैन विश्वभारती विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बच्छराज दूगड़ ने बधाई देते हुए फंगस क्षेत्र में उनकी शोध व उपलब्धियों की सराहना की है तथा उनके उज्ज्वल भविष्य की कामना की है।
जोधपुर में आयोजित संगोष्ठी में एमएसआई सोसायटी के अध्यक्ष प्रो. आरएन खारवाल ने फंगस पर विभिन्न संस्थानों में चल रहे शोधकार्य पर प्रकाश डाला। संगोष्ठी के मुख्य अतिथि आईआईटी जोधपुर के निदेशक प्रो. अविनाश कुमार अग्रवाल ने कहा कि जैव अभियांत्रिकी तकनीक से बायोमोलीक्यूल्स प्राप्त करने वाला देश की आने वाले समय में खाद्य पदार्थ, चिकित्सा उद्योग एवं पर्यावरण संरक्षण में विश्व के अन्य देशों से अग्रणी होगा। संगोष्ठी में देश भर के वैज्ञानिकों ने भाग लिया।
प्रो. बीसी लोढा का रहा है फंगस क्षेत्र में योगदान
उन्होंने कवक के वर्गीकरण पर महत्वपूर्ण योगदान दिया है, 12 नए वंश और 31 नई प्रजातियां प्रकाशित की हैं। एस्कोमाइसीट्स में एक समूह के लिए जेनेरिक अवधारणाएं प्रस्तावित की हैं और एस्कोमाइसीट्स के 10 वंश और 29 प्रजातियों का संशोधन किया है। पादप रोग विज्ञान के क्षेत्र में उन्होंने जैविक नियंत्रण के विशेष संदर्भ के साथ अदरक के प्रकंद सड़न के एकीकृत प्रबंधन पर महत्वपूर्ण योगदान दिया है। कई शोध लेखों के अलावा उन्होंने 1974 में एकेडमिक प्रेस, लंदन द्वारा प्रकाशित डॉ. सी. एच. डिकिंसन की पुस्तक ‘बायोलॉजी ऑफ प्लांट लिटर’ में ‘डाइजेस्टेड लिटर के अपघटन’ पर एक अध्याय और डॉ. जे. सुगियामा की पुस्तक ‘प्लियोमॉर्फिक फंगी’ में ‘प्लियोमॉर्फी इन सोर्डारियल्स’ पर एक और अध्याय प्रकाशित किया है, जिसे दो प्रकाशकों, एल्सेवियर (एम्स्टर्डम) हॉलैंड और कोडांशा (टोक्यो) जापान द्वारा 1987 में एक साथ प्रकाशित किया गया था।
राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर उनका सहयोग
प्रो. बी.सी. लोढ़ा जैन विश्वभारती संस्थान (डीम्ड यूनिवर्सिटी) लाडनूं के कुलपति के रूप में वर्ष 1997 से 2001 तक रहे थे। इसके अलावा वे राजस्थान कृषि विश्वविद्यालय उदयपुर के प्लांट पैथोलॉजी विभाग के पूर्व प्रमुख भी रहे हैं। 1995 में भारत सरकार ने उनसे आयातित बीजों और बीज सामग्री के लिए संगरोध प्राधिकरण के रूप में कार्य करने का अनुरोध किया। वे ब्रिटिश माइकोलॉजिकल सोसाइटी, माइकोलॉजिकल सोसाइटी ऑफ जापान और इंटरनेशनल माइकोलॉजिकल एसोसिएशन (आईएमए), एमएसआई सहित कई अकादमिक सोसाइटियों सेे आजीवन रूप से जुड़े हुए हैं। वे अंतर्राष्ट्रीय माइकोलॉजिकल एसोसिएशन (आईएमए) की कार्यकारी समिति, इंटरनेशनल सोसाइटी ऑफ प्लांट पैथोलॉजी (आईएसपीपी) द्वारा प्लांट पैथोलॉजी शिक्षण और प्रशिक्षण पर पहली अंतर्राष्ट्रीय समिति के सदस्य, एशिया के लिए आईएमए समिति के सदस्य, माइकोलॉजिकल सोसाइटी ऑफ इंडिया के अध्यक्ष एवं यूजीसी की ओर से रांची विश्वविद्यालय और वनस्थली विद्यापीठ के लिए विशेषज्ञों की विजिटिंग कमेटी के संयोजक, ब्रिटिश माइकोलॉजिकल सोसाइटी, माइकोलॉजिकल सोसाइटी ऑफ जापान और इंटरनेशनल माइकोलॉजिकल एसोसिएशन सहित कई अकादमिक सोसाइटियों से जुड़े हुए रहे हैं।