आत्मा नित्य-निरन्तर है, उसका जन्म नहीं होता- पं. रामपाल शर्मा शास्त्री जैसलान,
लामड़ा बालाजी धाम में भागवत कथा में व्यासपीठ पर चढ़ावे में आए 11 लाख गौ सेवार्थ चाराघर निर्माण के लिए समर्पित किए
डीडवाना/ लाडनूं (kalamkala.in)। लामडा बालाजी धाम पर ललासरी, लूणोदा व आसपास के ग्रामवासियों द्वारा गौ सेवार्थ आयोजित भागवत कथा में सातवें दिन कथा विराम में श्रद्धालुओं को संबोधित करते हुए कथा व्यास पं. रामपाल शर्मा शास्त्री जैसलान ने बताया कि बालकृष्ण के विद्यार्थी जीवन का सखा सुदामा आध्यात्मिक ब्रह्म-ज्ञान का धनी था, वह अपने ज्ञान को बेचता नहीं था बल्कि बांटता था। कथा वाचन के दौरान मनोहारी संगीत व झांकी के जरिए संदेश दिया गया कि सुदामा भौतिक धन के लिए याचक-वृत्ति से द्वारकाधीश के पास नहीं गया था, अपितु दर्शन-भाव से गया था।
आसक्ति रहित कर्म का फल भगवान पर छोड़ना ही है ‘निष्काम कर्म’
उन्होंने कहा कि राजा जनक व नव योगीश्वर संवाद हमें यह सिखाता है कि मन, वचन, शरीर, बुद्धि व स्वभाव से किया गया ममता व आसक्ति रहित कर्म के फल को भगवान् पर छोड़ देने से वह कर्म हमें बांधता नहीं है। इसे ही गीता में निष्काम कर्म कहा गया है एवं यही भागवत धर्म है। योगीश्वरों ने भगवान् की माया का वर्णन करते हुए बताया कि यह माया ही ईश्वर की प्रकृति है जो इस संसार की रचना, पालन, पोषण व अंततः स्वयं में लय कर लेती है। भगवान् की माया से बचने का सरल उपाय भागवत कथा सुनकर उसके मुताबिक जीवन जीने से माया के जंजाल से बचा जा सकता है। हमारी तो सारी उम्र ही थारी-म्हारी करने में गुजर जाती है। दत्तात्रेय के द्वारा यदुवंश के पूर्वज यदु को चौबीस गुरुओं से लिया गया ज्ञान वर्णित किया तथा पच्चीसवां गुरु अपने शरीर को बताया, जो कि विरक्ति व विवेक का हेतु है।
जो प्रकृति से लिया, उसे यज्ञ कर्म से लौटाएं
उन्होंने बताया कि इस भागवत ज्ञान का कुल अर्थ यह है कि संसार में हमने जो भी प्रकृति से लिया है उसे वापस लौटायें, दूसरों के यज्ञ-रूप परार्थ का काम जरूर करें, क्योंकि परोपकार का कर्म हमें बांधता नहीं है, अन्यथा अहंकार, कर्ताभाव व फल की इच्छा के साथ किया गया स्वार्थ कर्म हमें जन्म जन्मांतर में भटकाता रहता है। कर्म का स्वभाव है कि उसे करने पर फल तो मिलेगा ही मिलेगा, बस, कर्म फल को भगवान् के ऊपर छोड़ो। क्योंकि कर्म हम वर्तमान में करते हैं एवं फल भविष्य में मिलता है जो हमारे वश में नहीं है, वह भगवान् के वश में है। राजा परीक्षित को श्रीशुकदेवजी ने अंतिम उपदेश दिया कि हे राजन्! तुम मर जाओगे यह सोचना तो पशु बुद्धि है। मरता तो यह पंचभौतिक शरीर है। इसमें रहने वाली आत्मा तो अजर-अमर है, क्योंकि शरीर जन्म लेता है उसे मरना पड़ता है। आत्मा नित्य-निरन्तर है, उसका जन्म नहीं होता अतः वह अमर है। उसी आत्म स्वरूप को पहचानने की बातें अलग-अलग उदाहरण के साथ भागवत में कही गई है। परीक्षित के निर्वाण के बाद उसके बेटे जनमेजय ने सर्प-हवन-यज्ञ किया, जिसमें देवगुरु बृहस्पति ने आकर उसे समझाया कि जीना, मरना, सुख या दुःख तो मनुष्य मात्र अपने किये गये कर्मों के कारण भोगता है। इस मानव शरीर को प्राप्त कर हमें किसी से भी वैर भाव नहीं करना चाहिए। कथा के अन्त में सूतजी द्वारा किये गये भगवद्स्मरण के साथ आरती व पोथी-पूजन, हवन होकर भक्तों को प्रसाद वितरण किया गया।
गायों के टीन शेड के लिए भंवरलाल चोटियां ने दिए 3.50 लाख रुपए
कथा व्यास द्वारा व्यासपीठ पर चढ़ावे की आयी कुल समस्त 11.00 लाख राशि लामडा बालाजी स्थान पर गायों के लिए चारा घर निर्माण हेतु आयोजकों को संभलायी गयी। इसमें भंवर लाल पुत्र गोविंद राम चोटिया ललासरी द्वारा चारा घर के लिए टीन शेड हेतु 3.5 लाख राशि दी गयी। आयोजन में शामिल ललासरी वासी श्रीकृष्ण रणवां ने बताया कि ललासरी, लूणोदा के सभी ग्रामवासियों ने आश्वस्त किया है कि बाकी लागत भी जल्द ही मिल बैठकर एकत्रित कर लेंगे तथा एक बड़ा चारा-घर बनायेंगे, ताकि गौवंश को तकलीफ़ ना हो।
