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लाडनूं में शीतला सप्तमी का विशाल मेला सोमवार को, बासीड़ा रविवार को मनाया जाएगा, शहर में 31 मार्च को होगा रांधा-पोवा और मंदिर में होगा रात्रि जागरण कार्यक्रम

लाडनूं में शीतला सप्तमी का विशाल मेला सोमवार को, बासीड़ा रविवार को मनाया जाएगा,

शहर में 31 मार्च को होगा रांधा-पोवा और मंदिर में होगा रात्रि जागरण कार्यक्रम

जगदीश यायावर। लाडनूं (kalamkala.in)। लाडनूं का प्रसिद्ध शीतला माता का मेला सोमवार 1 अप्रेल को शीतला माता चौक में आयोजित किया जाएगा। श्री शीतला माता सेवा समिति के तत्वावधान में भरे जाने वाले मेले में लाडनूं शहर एवं आसपास के क्षेत्र के लोग भी पहुंचते हैं और यहां स्थित प्राचीन शीतला माता मंदिर में ठंडे पकवानों का भोग लगाएंगे। यहां पास में ही एक छोटा बोदरी माता का मंदिर भी बना हुआ है। गौरतलब है कि शीतला या चेचक और बोदरी नामक बीमारियां बच्चों को होने वाली घातक बीमारियां थी, जिनसे बड़ी संख्या में बालकों को अकालमृत्यु का शिकार होना पड़ता था। हालांकि अब इन बीमारियों में एकदम कमी आ चुकी, लेकिन आमजन में अब भी माता के प्रति आस्था में कोई कमी नहीं आई है।

बासीड़ा 31 मार्च रविवार को बनेंगे पकवान

लाडनूं में परम्परा के अनुसार शीतला-सप्तमी का यह मेला इस साल 1 अप्रेल सोमवार को आयोजित किया जाएगा। इससे पहले दिन 31 मार्च, रविवार को सभी लोग बासीड़ा का रांधा-पोवा करेंगे, जिनका अगले दिन माता को भोग लगाने के बाद सभी सेवन करेंगे। आमतौर पर इस दिन सांगरी की सब्जी, मोठ-बाजरा की मिस्सी रोटी, मोगर दाल के परांठे, दही-राबड़ी, लापसी व हलुआ आदि के साथ अन्य ऐसे पकवान बनाए जाते हैं, जो अगले दिन तक खराब नहीं हो। सर्दियों में गर्मागर्म खाने की जगह शीतला पर्व पर पहले दिन बना हुआ ठंडा भोजन ग्रहण किया जाता है। यह गर्मी का अहसास करवाता है। मेले में महिलाएं सुबह 4 बजे से ही उमड़ने लगती है और सायं तक मेला चलता रहता है।

पानी से शीतल की जाती है शीतला चौक की जमीन

शीतलासप्तमी के अवसर पर भरे जाने वाले मेले में माता को ठंडा करने की परम्परा भी रही है। इस दिन टैंकरों, कोठियों से पानी लाया जाकर भक्तजन द्वारा वहां के मेला-चौक में डाला जाएगा। इस मंदिर के आस-पास पहले पूरी खुली जमीन थी, कोई मकानात नहीं थे। पास ही ‘ताबोलाव’ तालाब था। तालाब के ताल में यह मंदिर बना हुआ था। मंदिर काफी प्राचीन है और करीब 500 से अधिक साल पहले इसका निर्माण हुआ था। इसका प्रारम्भिक निर्माण माली जाति के लोगों ने करवाया था। यहां के प्रारम्भिक माली सांखला थे, जो आसोप से आकर यहां बसे थे। आसोप में शीतला मंदिर उनके ही अधीन था, जिसमें उनकी कुलदेवी ‘जाखण माता’ की मूर्ति भी लगी हुई थी। उसी तर्ज पर उन्होंने शीतला माता के साथ यहां भी कुलदेवी जाखण माता की प्रतिमा स्थापित की थी, जो आज भी वहां लगी हुई है। बोदरी माता का मंदिर यहां बाद में बनाया गया। शीतला माता की पूजा बरसों तक मालियों ने की, फिर शीतला का वाहन गर्दभ (गधा) होने से यहां के कुम्हारों ने उसकी पूजा-अर्चना शुरू कर दी। कालान्तर में आस पास में रैगर जाति के बस जाने से कुम्हारों ने पूजा के लिए आना बंद कर दिया और यह व्यवस्था रैगर समाज ने सम्भाल ली, जो आज तक बदस्तूर चल रही है। इस मंदिर में मेले से पहले रात्रि में भजन-जागरण कार्यक्रम का आयोजन किया जाएगा, जिसमें स्थानीय भजन गायक अपनी प्रस्तुतियां देंगे।

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