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हाथ से हाथ जोड़ने की जगह हाथ से हाथ तोड़े जा रहे हैं, आपा खो कर नेता डाल रहे हैं पार्टी की जड़ों में तेजाब, किधर जाएगी जनता की राय, नहीं बनने देंगे राजस्थान को सराय

हाथ से हाथ जोड़ने की जगह हाथ से हाथ तोड़े जा रहे हैं,

आपा खो कर नेता डाल रहे हैं पार्टी की जड़ों में तेजाब,

किधर जाएगी जनता की राय, नहीं बनने देंगे राजस्थान को सराय

जयपुर (सुरेन्द्र चतुर्वेदी, ब्लाॅगर)। हाथ से हाथ जोड़ने का नारा देकर कांग्रेस ने जो कवायद शुरू करके नई उम्मीद जगाई है, लगता नहीं कि वह पूरी होंगी। खास तौर से राजस्थान में तो बिल्कुल नहीं। यहां तो छोटे से बड़े नेता हाथ से हाथ जोड़ने की जगह हाथ से हाथ तोड़ने की साजिश में लगे हुए हैं। एकता, अनुशासन और संगठन राजस्थान की किसी भी पार्टी में में कहीं नजर नहीं आ रहा। सिर्फ और सिर्फ सत्ता की भूख में अंधे नेता अपनी कारगुजारी में लगे हुए हैं। ऐसा नहीं सिर्फ कांग्रेस में ही सत्ता के भूखे नजर आ रहे हों, भारतीय जनता पार्टी में भी कमोबेश यही वातावरण है। हर बड़ा नेता, जितना बड़ा है, अपने को उससे कहीं ज्यादा बड़ा साबित होने के लिए पहलवानी कर रहा है। अपने वजूद को कायम रखने के लिए पार्टी की जड़ों में तेजाब डाल रहा है। आजादी के बाद इतनी आपाधापी कभी नहीं मची थी। एक दूसरे की घोड़ी बनाने के लिए जिस तरह की मारकाट मची हुई है, उसे देखकर तो लग रहा है कि कांग्रेस और भाजपा दोनों ही अपने संस्कारों से मुक्त हो चुके हैं।

दोनों पार्टियों में मची है मारकाट की मनोवृति

राजस्थान में कांग्रेस और भाजपा दोनों ही पार्टी में अंतर्कलह और फूट चरम पर है। कांग्रेस के मुखिया अशोक गहलोत, सचिन पायलट तो भारतीय जनता पार्टी में डॉ. सतीश पूनिया और वसुंधरा राजे अपनी-अपनी पार्टी को ताक पर रखकर अपनी महत्वाकांक्षाओं को मजबूत करने और उन्हें पुनर्जीवित करने के लिए सामने आ रहे हैं। राजस्थान में इधर राजनीतिक पार्टियों के नेता आपा खो चुके हैं। उधर पब्लिक समझ नहीं पा रही कि करे तो क्या करें। चारों तरफ समस्याओं का मकड़जाल फैला हुआ है। कानूनव्यवस्था का इतना बुरा हाल कभी नहीं हुआ। भ्रष्टाचार, सरकारी लूटपाट और आसपास का वातावरण देखकर लगता है कि दोनों ही पार्टियों के नेता अपनी-अपनी पार्टियों को डुबोने की सुपारी ले चुके हैं। स्थिति यह हो गई है कि अगले चुनाव में मतदाताओं के सामने किसी एक कम बुरे व्यक्ति को चुनने का ही विकल्प होगा। इसके अलावा कोई विकल्प नहीं, लोग पार्टियों को नहीं व्यक्तियों को चुनेंगे, कम बुरे लोगों को।

हाथ मिलाने में नहीं, छुड़ाने में लगे हैं सभी

यदि इस सवाल का उत्तर कांग्रेस और भाजपा के हाईकमान से पूछा जाए, तो पता चलेगा कि दोनों पार्टियों के हाईकमान अपने अपने नेताओं पर नियंत्रण रखने में नाकामयाब हो चुके हैं। कांग्रेस की स्थिति तो और भयंकर बुरी है, हाईकमान चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहा। जहां तक अशोक गहलोत और सचिन पायलट की करतूतों का सवाल है, हर कांग्रेसी कार्यकर्ता महसूस कर रहा है कि दोनों ही नेता हाथ से हाथ तोड़ने में अहम भूमिका निभा रहे हैं, गहलोत और सचिन पायलट ही आपस में हाथ से हाथ नहीं मिला पा रहे तो मतदाताओं के हाथ से हाथ मिलाने की नौबत कहां से आएगी? कार्यकर्ता तो पहले से ही एक दूसरे से हाथ छुड़ाने में मशगूल है। पिछले लंबे समय से इन दोनों नेताओं ने हाथ से हाथ तोड़ने के लिए जी जान लगा रखी है। राजस्थान में आम कार्यकर्ता इन दोनों नेताओं की लड़ाई से तंग आ चुका है, एक को मनाएं तो दूसरा रूठ जाता है, शीशा हो या दिल हो आखिर टूट जाता है।

कौन होंगे सता के केन्द्र में

विगत लंबे समय से कांग्रेस में सचिन पायलट और भाजपा में वसुंधरा राजे एक जैसा व्यवहार कर रहे हैं। दोनों ही अपनी यात्राओं को रफ्तार देकर अपने अपने जनाधार टटोल रहे हैं। दोनों ही नेता अपनी लोकप्रियता को दर्शा कर अपने-अपने हाईकमान तक यह संदेश पहुंचा रहे हैं, यदि चुनाव में उनको सत्ता का केंद्र नहीं बनाया गया तो वह पार्टी पर भारी पड़ेंगे। इसमें कोई दो राय नहीं कि सचिन पायलट और वसुंधरा राजे अपनी-अपनी पार्टी में बड़ा चेहरा हैं। उनकी लोकप्रियता का कहीं कोई मुकाबला भी नहीं। आम जनता में उनकी जड़ें दूर तक गहरी फैली हुई है। …मगर दूसरी तरफ का सच यह भी है कि दोनों की जड़ें तभी तक हरी भरी हैं जब तक पार्टियों से जुड़ी हैं।

घोषित होने वाले हैं दोनों दलों के जिलाध्यक्ष

सचिन पायलट हो या वसुंधरा राजे, दोनों ही यदि पार्टी से विद्रोह करके मैदान में उतरे, तो हो सकता है पार्टी को इस निर्णय से नुकसान हो, लेकिन यह दोनों नेता भी कहीं के नहीं रहेंगे। सचिन तभी तक सचिन है जब तक कांग्रेस उनकी रगों में है। वसुंधरा जी भी तभी तक लोकप्रियता के चरम पर हैं जब तक भाजपा उनकी धमनियों में है। दोनों ही नेताओं को यदि यह गलतफहमी है कि वे पार्टी की रीढ़ हैं, तो यह गलतफहमी उनको निकाल देनी चाहिए या फिर थोड़ा इंतजार करना चाहिए। अगले चुनाव में मतदाता खुद यह बता देंगे कि उनकी औकात क्या है। दोनों नेता अपने अभियानों पर ब्रेक लगाए तो बेहतर होगा। बाकी तो सारे अधिकार मतदाताओं के पास ही हैं। खैर हफ्ते-दो हफ्ते में दोनों पार्टियों के जिलाध्यक्ष घोषित होने की सम्भावना है। उसके चलते इस निचले स्तर पर भी भारी घमासान मचा हुआ है। यहां दोनों ही पार्टियों के नेता हाथ से हाथ तोड़ने में लगे हुए हैं।

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