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अपने देश के नाम और अपनी भाषाओं के लिए 25 सितंबर को दिल्ली की सड़क पर उतरेंगे देश के लोग जंतर-मंतर पर भारत और भारतीय भाषाओं का जागृति अभियान

अपने देश के नाम और अपनी भाषाओं के लिए 25 सितंबर को दिल्ली की सड़क पर उतरेंगे देश के लोग

जंतर-मंतर पर भारत और भारतीय भाषाओं का जागृति अभियान

पीछे मुड़ कर देखता हूँ तो पाता हूँ कि भारत में कुछ हिंदी अथवा अन्य किसी भारतीय भाषा विरोध के राजनैतिक आंदोलनों को छोड़ दें तो अपनी भाषाओं के लिए कोई बड़ा जनआंदोलन होता नहीं दिखता। हिंदी और भारतीय भाषाओं को ले कर संघ लोक सेवा आयोग के ऐतिहासिक आंदोलन में  कुछ हिंदी प्रेमी और हिंदी माध्यम से चयन के आकाक्षी विद्यार्थी पूर्ण समर्पण और त्याग भाव से जुड़े, बड़े-बड़े नेता भी पहुंचे लेकिन मुख्यत: भाषा से जुड़े लोगों तक  सामित होने के कारण बड़ी संख्या में लोग नहीं उतरे। अब 25 सितंबर को भारत के नाम और भारतीय भाषाओं में शिक्षा, न्याय व रोजगार सहित हिंदी को संवैधानिक रूप से राष्ट्रभाषा की माँग के लिए देश के विभिन्न राज्यों से समाज के सभी वर्गों व समुदायों के लोग जंतर-मंतर पर उतरने वाले हैं, इनमें से ज्यादातर का हिंदी कार्य से कोई सीधा संबंध नहीं है। इस बार समाज के सभी वर्गों. समुदायों व्यवसायियों के लोग आ रहे हैं। उद्योगपति, व्यापारी, छोटे दुकानदार, किसान, वकील, डॉक्टर, विद्यार्थी, शिक्षक  आदि सहित समाज के अनेक व्यवसायों से जुड़े लोग हैं, ये वे लोग हैं जो केवल हिंदी के लिए नहीं, भारतीय भाषाओं और भारत की पहचान के लिए, शांतिपूर्वक जागृति अभियान व धरने के लिए जंतर – मंतर पर उतर रहे हैं। शायद पहली बार ऐसा होने जा रहा है कि भारत और भाषाओं के लिए  बड़ी संख्या में जनमानस सड़क पर उतरने जा रहा है। 

अगर कोई मुझे पूछे कि इस अभियान व धरने का आयोजक कौन है ? तो मैं कहूँगा, डॉ. धर्मवीर भारती। जी हाँ, करीब एक माह पहले तक धरने के बारे में सोचा तक न था। किसी लेख के लिए एक पुस्तक में संबंधित सामग्री तलाशते हुए अचानक मेरी नजर डॉ. धर्मवीर भारती की कुछ पंक्तियों पर पड़ी, उसमें उन्होंने जो लिखा, आप भी पढ़ें – “भाषा और उसके बोलने वाले मनुष्य का संबंध अविच्छिन्न है। सच तो यह है कि इतिहास के किसी विशिष्ट क्षण में किसी भाषा की प्रतिष्ठा केवल इसलिए नहीं होती कि वह व्याकरण, लिपि, साहित्य-संपदा की दृष्टि से कितनी संपन्न है,  इसलिए भी नहीं होती कि वह संख्या में कितने लोगों द्वारा बोली जाती है, उसकी प्रतिष्ठा मूलत: इस आधार पर हो पाती है कि वह जिनकी भाषा है, जो उसे बोलते हैं, उनमें तन कर खड़े हो सकने की रीढ़ है या नहीं? अपने जातीय स्वाभिमान की रक्षा करने के लिए आन है या नहीं? कितना साहस है, कितनी संवेदना है, कितना मौलिक चिंतन है, कितनी बौद्धिक जागरूकता और अपने मूल्यों और अपनी आस्थाओं के लिए बलिदान दे सकने का कितना माद्दा है। और सबसे अधिक यह है कि अपने इस चरित्र-बल के साथ वे कितनी गहराई से अपने भाषा से जुड़े हैं। वस्तुतः उनके आंतरिक चरित्र बल का भाषा के साथ जुड़ना भाषा को बहुआयामी गरिमा प्रदान करता है। इसी बिंदु पर आकर यह संबंध अन्योन्याश्रित हो जाता है। पुरानी उक्ति है  ‘धर्म एवं हतो हन्ति, धर्मो रक्षति रक्षित:’, ‘जो धर्म की हत्या करता है वह स्वयं मारा जाता है और जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है।’ यहां धर्म की जगह भाषा रख दें तो स्थिति वही रहती है। जो जाति भाषा की उपेक्षा करती है वह स्वयं उपेक्षित हो जाती है और जो भाषा की रक्षा करती है, भाषा उसकी रक्षा करती है तो जहाँ विषय यह है कि अब जबकि हमारी भारतीय भाषाएं प्राय सभी क्षेत्रों में हाशिए पर आ चुकी हैं और हाशिए पर बाहर जाती रही हैं।”

 तब मन में उद्वेलन हुआ, कि डॉ. भारती के मंतव्य को ले कर कुछ किया जाए। कुछ बहुत उत्साहजनक तो नहीं दिख रहा था, क्या समाज अपनी भाषाओं के साथ खड़ा होगा ? फिर सोचा कि क्या हम भाषावालों ने कभी अपनी भाषाओं के लिए समाज को जोड़ने की कोशिश भी की? या फिर आपस में ही किसी सभागारों में या फिर ऑनलाइन, हिंदी–हिंदी खेलते रहे। सोचा एक कोशिश तो करके देखें, सफल न भी हुए, तो भी खोने के लिए क्या है। जितने भी लोग जुटें।

 अगर ईमानदारी से विचार करें तो सच्चाई यह है कि हम अपनी भाषाओं का उत्सव मनाते आ रहे हैं। भाषा के प्रसार के नाम पर तालियां बजा रहे हैं, गौरवगान कर रहे हैं। और उधर प्रति वर्ष मातृभाषा में पढ़ने वालों की संख्या और कम हो जाती है जहाँ आजादी के समय 99% से भी अधिक लोग मातृभाषा में ही पढ़ते थे। जहाँ तक मुझे स्मरण होता है 1986 से पहले तो दिल्ली में भी एम.ए. तक की पढ़ाई हिंदी में यानी मातृभाषा में उपलब्ध थी। लेकिन हम उत्सव मनाते रहे, तालियां बजाते रहे, भाषा बढ़ने के झूठे गीत गाते रहे और चुपचाप धीरे-धीरे से हमारे पांव के नीचे से जमीन खिसकाई जाती रही। अब स्थिति यह है कि पिछली कई पीढ़ियां अंग्रेजी में रंग कर निकली हैं। जब अंग्रेजी भाषा में रंग कर निकली हैं तो ये भारतीय संस्कृति में नहीं पाश्चात्य संस्कृति और सोच में पगे हैं। जिन घरों में कुछ समय पूर्व तक हिंदी के सैनिक थे अब वहाँ अंग्रेजी की सेना खड़ी हो चुकी है। हिंदी के प्रचार-प्रसार के नाम पर हम सब हिंदी सेवी बातें बनाने से अधिक क्या कर पाते हैं? मैं अक्सर कहता हूँ कि हिंदी के कार्यक्रमों में हिंदीवाले, हिंदीवालों को हिंदी में हिंदी पर भाषण देते हैं और हिंदी वाले तालियां बजाकर गदगद हो कर चले जाते हैं।  सरकारी तंत्र में तो बेड़ियों से बंधे हिंदीसेवी इससे ज्यादा कुछ कर भी नहीं सकते। बोलते ही गाज गिरने का थकरा, वैसे बोलना कितने चाहते हैं . यह अलग प्रश्न है। सरकारी नीति और नीयत से आगे कोई कैसे जा सकता है? सबसे महत्वपूर्ण बात यह भी है कि अपनी भाषाओं की बात में प्रायः समाज कहीं नहीं होता । इस प्रकार की चर्चाओं में भी वह प्रायः नहीं जुड़ता। मैं तो यहां तक पाता हूँ कि हिंदी के पत्रकार, सिनेमा वाले और अनेक वर्ग जो हिंदी के माध्यम से रोजी-रोटी कमा रहे हैं, वे भी अक्सर इनसे दूर रहते हैं। मैं क्षमा चाहूंगा, ज्यादातर हिंदी के साहित्यकार भी अपनी कविता, कहानी और रचना से आगे अपनी ही भाषा के लिए आने को तैयार नहीं दिखते।  

पिछले महीने जब ‘जनता की आवाज फाउंडेशन’ के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री सुंदरलाल बोथरा ने किसी कार्यक्रम के आयोजन की बात कही, तो डॉ. भारती की पंक्तियां मेरे मन मस्तिष्क को बेचैन किए हुए थीं। सोचा, क्यों न ऐसा कोई जनआंदोलन किया जाए कि समाज सड़कों पर यह भी मन में आया कि जब इतने सालों में समाज सड़कों पर न आया तो अब कैसे आएगा, प्रश्न जटिल था लेकिन भीतर की आज अचानक बाहर आ गई, मैंने कहा ऐसा करते हैं कि सड़कों पर उतरते हैं वे मुस्कुराए बोले- ‘गुप्ता जी आप यह क्या बात कर रहे हैं’। मैंने कहा मैं चाहता हूँ कि हम इंडिया के बजाए अपने भारत के नाम को स्थापित करने और भारतीय भाषाओं के मुद्दों को लेकर जंतर-मंतर पर बैठें ? समाज को भी बुलाएँ? बोथरा जी भी चिंता में पड़ गए, लेकिन वे मौजी और सकारात्मक सोच वाले व्यक्ति हैं। उन्होंने कहा ठीक है, चलिए करते हैं, देखा जाएगा । व्यवसायी हैं जोखिम लेने का माद्दा है। आनेवालों की संख्या को लेकर, आश्वस्त तो मैं भी न था, लेकिन जनता की आवाज फाउंडेशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष बोथरा, दिल्ली के वासी और राष्ट्रीय महासचिव नरेड़ा और वैश्विक हिंदी सम्मेलन के अनेक साथियों ने हौसला बढ़ाया। हम खड़े हुए तो कारवाँ बनता गया।  

जब साहित्यकार बुद्धिनाथ मिश्र जी से चर्चा की तो उन्होंने मेरा हौंसला बढ़ाया। कविवर अशोक चक्रधर जी ने मेरा हौसला बढ़ाया और  भी अनेक मित्र थे। इसी बीच मेरा लाडपुर में आर्य समाज के कार्यक्रम में मुख्य वक्ता के तौर पर जाना हुआ। आर्य समाज ने भी मेरे संकल्प को आगे बढ़ाया। जब मैंने भारतीय भाषाओं के संग्राम के पितमाह डॉ. वेद प्रताप वैदिक जी, जो कि वरिष्ठ पत्रकार और विदेश नीति के विशेषज्ञ हैं, उन्होंने कहा गुप्ता जी, आगे बढ़िए। देखते ही देखते कारवां बनने लगा। इस अभियान की सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अब तक भाषा के मामले में विशेषकर उत्तर भारत और हिंदी भाषी क्षेत्रों में कुछ हिंदी भाषी विद्वान भाषा कर्मी, पत्रकार, शिक्षक आदि ही सामने आते रहे हैं। लेकिन इस बार समाज उतर रहा है । संविधान से इंडिया नाम को हटाया जाए केवल भारत को अपनाया जाए। हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा अर्थात राष्ट्रीय संपर्क भाषा बनाया जाए ताकि विभिन्न कानूनों के अंतर्गत देश के लोगों को जानकारी हिंदी में दी जाए। हिंदी पारस्परिक व्यवहार के अतिरिक्त कामकाज में अब तक केवल राजभाषा के रूप में थोड़ी बहुत सरकारी गलियारों में ही देखी जाती है। यही क्यों, मैं यह भी कह रहा हूँ कि राज्यों की भाषा को उनके राज्यों की अधिकारिक संपर्क भाषा भी बनाया जाए। कहने का मतलब बहुत ही स्पष्ट है कि विभिन्न कानूनों के अंतर्गत देश की जनता को जो जानकारी केवल अंग्रेजी में दी जा रही है राष्ट्रभाषा और राज्य भाषा का स्थान जबरन अंग्रेजी ने छीन रखा है, उस पर से अंग्रेजी का कब्जा हटाकर संघ के स्तर पर संघ की और राज्यों के स्तर पर राज्यों की भाषा को दिया जाए और विभिन्न कानूनों के अंतर्गत देश की जनता को संघ और राज्य की भाषा में सूचनाएं देकर उन्हें अन्याय शोषण और धोखाधड़ी से बचाया जाए। मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि भाषा की राजनीति और क्षेत्रवाद के चलते कठिनाइयाँ तो है। लेकिन कठिनाइयों को किस तरह से दूर करना है। किस तरह से राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्र की संपर्क भाषा और राज्य के स्तर पर राज्य की संपर्क भाषा के माध्यम से जनता को उनके अधिकार देन हैं। यह कार्य तो सरकारों का है। वे किस प्रकार रास्ता निकालती हैं। लेकिन आवाज तो हमें उठानी ही पड़ेगी । ठिठक कर चुपचाप बंद कमरों में बैठकर आतंकित होने से तो कोई राह न निकलेगी।

सबसे बड़ा विषय है कि देश की जनता को देश की भाषाओं में न्याय मिले। कहना न होगा कि 30 अप्रैल को स्वयं भारत के प्रधानमंत्री और मुख्य न्यायाधीश ने मुख्यमंत्रियों और मुख्य न्यायाधीशों के सम्मेलन में इस बारे में खुद ही आगे बढ़ने की बात कही है। सिद्धांत रूप से हमारी मांग को स्वाकृति मिल चुकी है। लेकिन जनतंत्र में सरकारें तो जनता की मांग से ही आगे सरकती हैं। यूँ तो पूर्व गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने भी भोपाल में हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की बात की थी, पर हुआ कुछ भी नहीं। हम भी तो चुप ही बैठे थे।

जैसाकि मैंने ऊपर कहा कि नर्सरी तक और गांव-गांव तक अंग्रेजी माध्यम पसर गया है तो उसका सबसे बड़ा कारण है कि संसाधनों की ढलान अंग्रेजी की तरफ बना दी गई है। आप हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं की के स्कूल खोलें, कॉलेज खोलें, कोई क्यों पढ़ने आएगा ? इसलिए यह भी जरूरी है कि भारतीय भाषाओं के माध्यम से रोजगार की राह बनाई जाए। इऩ्ही माँगों को लेकर बम जंतरमंतर पर उतर रहे हैं। एक बात और हमें अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए, केवल ललित साहित्य से तो भाषाएँ नहीं बचेंगी। हाँ अगर भाषा बच गई तो साहित्य, धर्म, संस्कृति कला सब बचेगा। मैं यहां कहना चाहूंगा साहित्य-संस्कृति बचानी है तो अपनी भाषाएँ बचाएँ। धर्म बचाना है तो अपनी भाषाएँ बचाएँ। जिन्हें संस्कारों की चिंता है, संस्कार बचाने हैं तो अपनी भाषाएँ बचाएँ। हजारों वर्षों से संचित ज्ञान-विज्ञान बचाना है तो अपनी भाषाएँ बचाएँ। देश बचाना है तो अपनी भाषाएँ बचाएँ।

हमारी शिकायत होती है कि समाज आगे नहीं आता, मैं सभी साथियों, मित्रों भाषा प्रेमियों से यह निवेदन करूंगा कि आज समाज अपनी भाषाओं के लिए जंतर-मंतर पर उतर रहा है इसलिए आज वे सब जो भारतीय भाषाओं के झंडाबरदार हैं। हम जो भारतीय भाषाओं को आगे बढ़ाना चाहते हैं। अपने देश धर्म और संस्कृति को आगे बढ़ाना चाहते हैं, आज आगे बढ़कर समाज को गले से लगाए समाज को आश्वस्त करें, उनका अभिनंदन करें और इसके लिए 25 सितंबर 2022 रविवार को जंतर मंतर पर आएँ। जो दिल्ली से बहुत दूर हैं आने में असमर्थ हैं वे जहां भी हैं देश में या विदेश में वहीं से हाथ उठाएँ। आइए और इस ऐतिहासिक अवसर के साक्षी बनें, सहभागी बने, और जो बहुत दूर , नहीं आ सकते। जिनकी कोई विवशता है, जो जहाँ है वहीं से अपने तरीके से प्रचार-प्रसार से, शुभकामना संदेशों से अपनी भावनाएँ दूसरों से बांटकर इसके सहभागी बनें। न भूलें कि हमें इतिहास को भी उत्तर देना है, आने वाली पीढ़ियों को भी उत्तर देना है। मैं तो यह समझता हूं कि 25 सितंबर का आयोजन तो मात्र एक बानगी है यदि सब लोग इसी प्रकार खड़े हों तो हम नगर-नगर, डगर-डगर खड़े हो सकते हैं। अपनी भाषाओं की मांग के माध्यम से ही हम इस कार्य को आगे बढ़ाने में सरकार के मददगार भी हो सकते हैं।

 डॉ. मोतीलाल गुप्ता ‘आदित्य’ 

निदेशक, वैश्विक हिंदी सम्मेलन।

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