विज्ञान की उत्पत्ति एवं विकास में वेद एवं उपनिषदों का महत्वपूर्ण स्थान- डा. भटनागर,
‘भारतीय ज्ञान-परम्परा में ज्ञान और विज्ञान’ विषयक व्याख्यान आयोजित
लाडनूं (kalamkala.in)। जैन विश्वभारती के शिक्षा विभाग में चल रही ‘भारतीय ज्ञान परंपरा’ विषयक व्याख्यानमाला में विभाग के आचार्य डॉ. मनीष भटनागर ने ‘भारतीय ज्ञान परम्परा में ज्ञान और विज्ञान’ पर व्याख्यान प्रस्तुत करते हुए कहा कि भारतीय ज्ञान परंपरा में ज्ञान एवं विज्ञान का एक समृद्ध और विविधता पूर्ण स्वरूप रहा है। ज्ञान को भारतीय ज्ञान परंपरा में आत्मज्ञान एवं बाह्य ज्ञान को दर्शाते हुए उसे दार्शनिक स्वरूप में प्रस्तुत किया गया हैे। इसमें आंतरिक स्तर का आत्मज्ञान आत्म-साक्षात्कार से संबंधित है, जबकि बाह्य ज्ञान विज्ञान और तकनीकी से संबंधित है। उन्होंने बताया कि विज्ञान की उत्पत्ति एवं विकास में वेद एवं उपनिषदों का महत्वपूर्ण स्थान माना जाता है। विज्ञान और ज्ञान को परस्पर पूरक माना जाता है और इनमें समन्वय स्थापित करना होता है। वैदिक काल में ज्ञान एवं विज्ञान का इतिहास उच्च स्तर पर रहा और वेद के बाद उपनिषद पुराण आदि की बात आती है, जो आत्मज्ञान एवं ब्रह्म ज्ञान पर केंद्रित हैं। ज्ञान के माध्यम से सामाजिक विकास को बढ़ावा देने की बात की जाती है, यह हमारी सांस्कृतिक धरोहर को भी विकसित करती है। प्राचीन ज्ञान विज्ञान के आधार पर हम आधुनिकता को जोड़कर विकसित जीवन जीने के लिए प्रेरित होते हैं और अपनी परंपरा की अमूल्य धरोहर को अपनाने के लिए सभी को प्रेरित कर सकते हैं।
वेदों एवं प्राचीन परम्परा में पूरा विज्ञान समाहित था
डा. भटनागर ने बताया कि प्राचीन भारतीय ज्ञान परंपरा में जीव विज्ञान, रसायन विज्ञान, प्राणी विज्ञान, इंजीनियरिंग, जल प्रबंधन, यांत्रिकी जैसी अवधारणाएं भी सम्मिलित की गई थी। इससे पर्यावरण संरक्षण पर भी जोर दिया गया है। प्राचीन आयुर्वेदिक चिकित्सा प्रणाली स्वास्थ्य एवं तंदुरुस्त व्यक्ति को विकसित करती है। यज्ञ एवं अन्य धार्मिक अनुष्ठानों के बारे में भी कई ग्रंथ हमें बताते हैं। आयुर्वेद, ज्योतिष, गणित, भौतिकी जैसे विषयों में भारतीयों का अतुल्य योगदान रहा है। आर्यभट्ट एवं भद्राचार्य ने गणित और खगोल विज्ञान, चरक का आयुर्वेद और कणाद जैसे महान व्यक्तित्व का वैशेषिक दर्शन प्राकृतिक विज्ञान में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। सूर्य चिकित्सा, जल चिकित्सा, मानसिक चिकित्सा का विस्तृत विवरण भी भारतीय ज्ञान परंपरा में मिलता है। आचार्य सुश्रुत द्वारा रचित ग्रंथ ‘सुश्रुत संहिता’ में शल्य-चिकित्सा (आॅपरेशन) सम्बन्धी कई उपकरण एवं पशु चिकित्सा के उपयोगी औषधों व उपकरणों और घोड़े के रोग उपचारों की जानकारी मिलती है। महर्षि चरक द्वारा रचित ‘चरक संहिता’ आयुर्वेद का आधार ग्रंथ माना जाता है। पतंजलि का नाम योग शास्त्र के लिए विख्यात है। उन्होंने बताया कि भारत में हड़प्पा कालीन संस्कृति में अनेक धातुओं का प्रयोग हुआ था। दिल्ली में स्थित कुतुब मीनार में कभी जंग नहीं लगा, यह उत्कृष्ट लौह-कला का नमूना है। प्राचीन काल में भारत में रत्न-विज्ञान भी उच्च कोटि का था।
सभ्य व सांस्कृतिक परम्परा भी रहीं मौजूद
उन्होंने बताया कि यहां समाज एवं संस्कृति को अनुशासन के साथ सम्मान देने की परम्परा रही थी। संपूर्ण गुरु आज्ञापालन एवं पात्रता के आधार पर शिक्षा देने की बात आती थी। शिक्षा पूर्णतः मूल्य पर आधारित थी और ज्ञान का सार्वभौमिक दृष्टिकोण था। भारतीय ज्ञान परंपरा के विशिष्ट तथ्यों को हमें अपने जीवन में अपने का प्रयास करना चाहिए। व्याख्यान में विभागाध्यक्ष प्रो. बीएल जैन ने अपने विचारों में स्टेम प्रक्रिया को समझाते हुए सभी विषयों को समाहित करके शिक्षा देने की बात कही। कार्यक्रम के दौरान डॉ. अमित जैन, डॉ. आभा सिंह, डॉ. गिरिराज भोजक, डॉ. गिरधारी लाल शर्मा, डॉ. विष्णु कुमार, देवीलाल कुमावत, स्नेहा शर्मा, कुशल जांगिड़, ममता परीक आदि एवं समस्त विद्यार्थी उपस्थित रहे।