प्रतिक्रमण के प्रयोग से संभव है विभिन्न असंभव रोगों का इलाज- डा. संगीतप्रज्ञा,
आध्यात्मिक विज्ञान सम्बंधी विश्व सम्मेलन में जैविभा की समणियों ने की सहभागिता
लाडनूं। डाक्टर्स फाॅरम, एनिमल वेलफेयर सोसायटी आॅफ इंडिया एवं ज्ञानसागर साईंस फाउंडेशन के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित वल्र्ड कांफ्रेंस आॅन स्प्रिचुअल साईंस को आयोजित किया गया। काॅंफ्रेंस के संयोजक डा. डीसी जैन ने विश्वभर के आध्यात्मिक वि़द्वानों के शोध-आलेख प्रस्तुत करने के लिए आमंत्रित किया, जिनमें जैन विश्वभारती संस्थान से डा. समणी संगीत प्रज्ञा एवं समणी जिज्ञासाप्रज्ञा को भी आमंत्रित किया। डा. समणी संगीतप्रज्ञा द्वारा ‘स्वस्थ जीवन का आधार प्रतिक्रमण’ विषय पर प्रस्तुत शोध-आलेख को सभीने सराहा। डा. संगीतप्रज्ञा ने अपने पत्रवाचन में बताया कि जो अपनी भूल को भूल नहीं मानता वह अन्दर ही अन्दर भयभीत, दुःखी व तनावग्रस्त होता है। क्रोध एवं चिड़चिड़ेपन से लीवर और गॉलब्लेडर, भय से गुर्दे एवं मूत्राशय, तनाव एवं चिन्ता से तिल्ली, पेंक्रियाज और आमाशय तथा अधीरता एवं आवेग से हृदय एवं छोटी आंत तथा दुःख से फेफड़े एवं बड़ी आंत की क्षमता घटती है। यदि शारीरिक तंत्रिका तंत्र, नाड़ी-तंत्र आदि पूरे शरीर को स्वस्थ रखना है तो क्रोध को क्षमा में बदलना होगा, अभय की साधना करनी होगी, शान्त और सुखी जीवन जीना होगा। नकारात्मक विचार, चिन्तन व मनन की जगह सकारात्मक विचारों को प्रश्रय देना होगा। दुनिया में इतने दुःख अथवा कष्ट नहीं हैं जितने कि आदमी भोगता है, अनुभव करता है। इसका कारण है अज्ञान। यदि व्यक्ति सुखी व स्वस्थ जीवन जीना चाहता है तो उसे प्रतिक्रमण का शाब्दिक नहीं, हार्दिक भाव समझना होगा।
आत्मनिरीक्षण की प्रक्रिया है प्रतिक्रमण
उन्होंने अपने पत्रवाचन में बताया कि प्रतिक्रमण का उद्देश्य पाप का प्रायश्चित्त कर इसे कम करना है। प्रतिक्रमण और स्वास्थ्य का परस्पर गहरा संबंध है। सर्वांगीण स्वस्थता का तात्पर्य है- शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक तनावों से मुक्त जीवन। आत्मा की विकृतियों से ही बीमारियां होती हैं। अच्छे स्वास्थ्य के लिए रोगोत्पत्ति के कारणों एवं निवारण के हेतुओं का ज्ञान होना आवश्यक है। प्रतिक्रमण गलती को गलती मानने, जानने और छोड़ने का पुरुषार्थ है। जिस प्रकार रोगी अपने गिरे हुए स्वास्थ्य को आसन, प्राणायाम, दवाइयों का प्रयोग कर पुनः प्राप्त कर सकता है, उसी प्रकार साधक अपने व्रतों में लगे दोष से मलिन बनी आत्मा को प्रतिक्रमण से शुद्ध कर लेता है। उन्होंने प्रतिक्रमण को स्पष्ट करते हुए बताया कि प्रतिक्रमण पीछे लौटने कहते हैं। यानि प्रमादवश शुभ से विचलित होकर अशुभ में चले जाने पर पुनः शुभ की ओर लौटना है। उन्होंने बताया कि प्रतिक्रमण आत्मनिरीक्षण की प्रक्रिया है, स्वदोष दर्शन की प्रक्रिया है जो कि प्रत्येक साधक के लिए जरूरी है।
प्रतिक्रमण का प्रायोगिक प्रभाव
डा. डीसी जैन ने अपने सम्बोधन में डा. समणी संगीप्रज्ञा और उनके आलेख का उल्लेख करते हुए बताया कि उनके लेख को उन्होंने अेक बार पढा और उसे क्रियात्मक रूप से आजमाने का फैसला किया। एक सभी प्रकार की चिकित्साओं से निराश मरीज पर इसको आजमाया भी। उस मरीज की गर्दन निरन्तर हिल रही थी। उसने बताया कि वह पूरे संसार में घूम चका लेकिन कहीं भी उसकी बीमारी ठीक नहीं हुई। अंतिम इलाज के बारे मे ंपूछे जाने पर उसने बताया कि एक चिकित्सक ने उसे बटेर पक्षी को भून-भून कर खाने की सलाह दी, जिसे करने के बाद ठीक होने के बजाए उसकी बीमारी और अधिक बढ गई। तब उस मरीज को प्रतिक्रमण करने की सलाह देकर विधि बताई गई। उस बीमार व्यक्ति ने एक महिने बाद वापस लौट कर बताया कि प्रतिक्रमण से उसका गर्दन का हिलना पूरी तरह से बंद हो गया है। समणी के इस संदेश को जन जन तक पहुंचाने की आवश्यकता है। इसी कारा से यह आलेख इस विश्व-सम्मेलन में पढने के लिए आमंत्रित किया गया है। इस पर डा. समणी संगीतप्रज्ञा ने इसे महान गुरूओं की प्रेरणा बताते हुए गुरू आचार्य तुलसी, महाप्रज्ञ और महाश्रमण के प्रति आभार जताया। इस काॅंफ्रेंस में जैन विश्वभारती संस्थान की शोध-विद्यार्थी समणी जिज्ञासाप्रज्ञा ने भी आत्मा के अस्तित्व पर अपना पत्रवाचन किया। इस विश्व सम्मेलन में भारत, नेपाल, अमेरिका आदि विभिन्न देशों से बड़ी संख्या में वि़द्वानों ने भाग लिया, जिनमें से करीब 50 विद्वतजनांे ने अपने शोधपत्र पढे।