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योग्यता का विकास करके व्यक्ति स्वयं को उपयोगी बनाएं, आचार्य श्री महाश्रमण रचित ‘रश्मियां अर्हत वांङ्मय की’ कृति की समीक्षा

योग्यता का विकास करके व्यक्ति स्वयं को उपयोगी बनाएं,

आचार्य श्री महाश्रमण रचित ‘रश्मियां अर्हत वांङ्मय की’ कृति की समीक्षा

लाडनूं। डॉ. गिरधारी लाल शर्मा ने आचार्यश्री महाश्रमण रचित ‘रश्मियां अर्हत वांड्मय की’ पुस्तक को व्यक्तिगत, सामाजिक एवं राष्ट्रीय उन्नति में सहायक पुस्तक बताया। वे यहां जैन विश्वभारती संस्थान के शिक्षा विभाग में संकाय संवर्धन व्याख्यानमाला के अंतर्गत पुस्तक समीक्षा कार्यक्रम में इस कृति की समालोचना प्रस्तुत कर रहे थे। उन्होंने कहा कि ‘रश्मियां अर्हत वांङ्मय की’ कृति में आचार्यश्री ने सुखी, सफल तथा संतुलित जीवन एवं शैक्षिक व लोकतान्त्रिक विषयों को सहज एवं सरल उदाहरणों व प्रसंगों के माध्यम से वर्णित किया हैं। उन्होंने पुस्तक में आत्मा तथा शरीर दोनों के योग जीवन वर्णित किया है तथा विशिष्ट जीवन शैली के चार सूत्र बताये हैं- ईमानदारी के प्रति निष्ठा, संवेग संतुलन, संयम तथा समय नियोजन। व्यक्ति के जीवन में सद्ज्ञान तथा तदनुसार सदाचरण का योग होना चाहिए। दुर्गुणों का वर्जन तथा सद्गुणों का अर्जन व्यक्ति को विकास की ओर ले जाता है। आचार्यश्री ने पुस्तक में वर्तमान जीवन को अच्छा बनाने के तीन सूत्र बताए हैं- स्वास्थ्य सम्पन्नता, शक्ति सम्पन्नता तथा शांति सम्पन्नता। उन्होंने बताया है कि शांति भौतिक पदार्थों से नहीं अपितु त्याग व संयम से होती है। व्यक्ति को स्वयं को उपयोगी बनाना चाहिए, जिसके लिए योग्यता का विकास जरुरी है। आचार्यश्री ने व्यक्ति में वाक्कौशल का होना आवश्यक बताते हुए भाषा को अलंकृत व परिष्कृत बनाने के लिए चार बातें आवश्यक बताया है- परिमितभाषिता, मधुरभाषिता, यथार्थभाषिता तथा परीक्ष्यभाषिता। जिस व्यक्ति के जीवन में नम्रता, क्षमा, समर्पण तथा सबके प्रति आदर का भाव है, वह व्यक्ति महान होता है।

व्यक्ति निर्माण का सशक्त माध्यम है शिक्षा

शिक्षा की महत्ता बताते हुए आचार्यश्री महाश्रमण अपनी इस कृति में कहते हैं, शिक्षा व्यक्ति निर्माण का सशक्त माध्यम है। शिक्षा द्वारा व्यक्ति के संस्कार स्तर को बहुत ऊंचा उठाया जा सकता है। आचारयुक्त ज्ञान का विकास विद्यार्थी को योग्य बना सकता है। विद्यार्थी में ईमानदारी के प्रति निष्ठा, विनम्रता का भाव तथा नशामुक्त जीवन जीने का संकल्प जग जाये तो वह अच्छा नागरिक बन सकता है। वृद्धावस्था को शांतिपूर्वक जीने हेतु आचार्यश्री ने चार उपाय सुझाये हैं- जप, तप, उपशम तथा श्रम। स्वस्थ्य लोकतंत्र के लिए कहते हैं- देशहित तथा व्यक्तिहित के लिए लोकतंत्र स्वस्थ्य हो, अनेकांत व अहिंसा पर आधारित हो, एक दूसरे का गिराने का लक्ष्य बल्कि सहयोगपरक दृष्टिकोण हो तो लोकतंत्र देश के लिए वरदायी बन सकता है तथा भारत विकासशील से विकसित देशों की श्रेणी में आ सकता है। अंत में शिक्षा विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो. बी.एल.जैन ने आभार ज्ञापित करते हुए कहा आचार्यश्री की प्रस्तुत कृति में वर्णित विचार पूर्ण रूपेण अनुकरणीय हैं, जिनके माध्यम से व्यक्ति का जीवन सुखी, सफल तथा उत्कृष्ट बन सकता है तथा राष्ट्र निर्माण में वह अपनी भागीदारी निभा सकता है। कार्यक्रम में समस्त शिक्षा संकाय सदस्य तथा विद्यार्थी उपस्थित रहे।

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