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किसके सिर बंधेगा ताज? लाडनूं में चतुष्कोणीय मुकाबला: मतदान के 8 दिन शेष, पर स्पष्ट तस्वीर नहीं उभर पाई अभी तक, उपलब्धियों, आलोचना-प्रत्यालोचनाओं और पार्टी, जातियों के सहारे के बीच भीतरघात से भी लड़ना जरूरी

किसके सिर बंधेगा ताज?

लाडनूं में चतुष्कोणीय मुकाबला: मतदान के 8 दिन शेष, पर स्पष्ट तस्वीर नहीं उभर पाई अभी तक,

उपलब्धियों, आलोचना-प्रत्यालोचनाओं और पार्टी, जातियों के सहारे के बीच भीतरघात से भी लड़ना जरूरी

लाडनूं। मतदान के सिर्फ आठ दिन शेष रहे हैं, ऐसे में सभी उम्मीदवारों ने अपना प्रचार अभियान परवान पर चढ़ा दिया है। गांव-गांव और शहर में सभाओं और सम्पर्क का कार्य गति पर है। यहां चार उम्मीदवार मैदान में आजमाइश कर रहे हैं। इन सबकी कवायद पर आम जनता की नजरें टिकी हुई है और सारी स्थिति देख कर ही लोग कोई निर्णय लेंगे, ऐसा लग रहा है। सबकी तुलना करने के साथ अन्य विभिन्न पहलुओं पर भी मतदाताओं का ध्यान है। लगता है इस बार कोई लहर काम नहीं करेंगी, बल्कि उम्मीदवार व पार्टी की छवि ही उसके लिए वोट बटोरने में सहायक बनेगी। यहां कम उम्मीदवार होने से लोगों के लिए प्रत्याशियों का आकलन कुछ आसान रहेगा। इस बार वोट काटने वाले प्रत्याशी नहीं बचने से चारों उम्मीदवारों के बीच सीधा मुकाबला होना है।

उपलब्धियां गिनाना ही सबसे बड़ा सहारा

भारतीय जनता पार्टी से करणी सिंह है, कांग्रेस से मुकेश भाकर, बसपा से नियाज मोहम्मद खान और माकपा से भागीरथ यादव की जोर-आजमाइश चल रही है। इनमें मुकेश भाकर को छोड़ कर शेष तीनों प्रत्याशी पहली बार चुनाव लड़ रहे हैं। अनुभवी प्रत्याशी के रूप में मुकेश भाकर दूसरी बार मैदान में हैं। भाकर मौजूदा विधायक होने के साथ लम्बा राजनीतिक व चुनावी अनुभव रखते हैं। उनके लिए अपने कार्यकाल के दौरान करवाए गए कार्य प्रमुख रूप से उपलब्धि के रूप में गिनाए जा रहे हैं और भाजपा उम्मीदवार की आलोचना को अपना आधार बना कर चल रहे हैं। उनके पास जाट जाति का ध्रुवीकरण नजर आता है और अन्य जातियों के वोटों की उम्मीद भी पिछले चुनाव की तर्ज पर बनी हुई है।

जुझारू छवि व कर्मठ कार्यकर्ताओं पर दारोमदार

उनके अलावा भागीरथ यादव पहली बार विधानसभा के प्रत्याशी जरूर हैं, लेकिन उनका राजनीतिक अनुभव गहरा है। यादव अनेक चुनाव लड़ चुके और लड़ा चुके। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी में उनके पास पूरे जिले का प्रभार है। उनका जीवन संघर्षों में रहा है। वे किसान, मजदूर, छात्र, युवा, रेहड़ी चालक आदि विभिन्न वर्गों और आम आदमी के लिए निरन्तर जुझारू रहे हैं। वे अपने संघर्षों और कामों के आधार पर भावी नीतियां पेश करके वोटों की अपील करते हैं। उनके पक्ष में भी विधायक भाकर की आलोचना को प्रमुख आधार बनाया गया है। उनके पास डीडवाना तहसील की 13 पंचायतों के वोटों के साथ मूल ओबीसी और किसानों-मजदूरों के वोटों की उम्मीद है। उनकी टीम झुकने या किसी दबाव -प्रभाव में आने वाली नहीं होकर केडर बेस की टीम है, जिसका लाभ उन्हें मिलेगा।

मिलेगा मनोहर सिंह के कामों और सम्पर्कों का लाभ

भाजपा के करणी सिंह राजनीति में नए कहे जा सकते हैं। हालांकि उनके पिता मनोहर सिंह तीन बार विधायक रहे, पर करणी सिंह लगभग राजनीति से दूरी बनाए रहे। अब उनके देहावसान के बाद वे सामने आए हैं। उनके द्वारा अपने पिता के कार्यकाल, विकास कार्यों, उनके स्वभाव, व्यवहार आदि को भुनाने और भाजपा के परम्परागत वोटों के अलावा अन्य जातिगत जोड़ तोड़ की चुनौती बनी हुई है। राजपूत समाज के एकजुट होने के साथ मंजीत पाल के रावणा राजपूत समाज का समर्थन दिए जाने और शहरी क्षेत्र से अधिकतम वोट जुटाने की संभावना के साथ ब्राह्मण व मूल ओबीसी के वोट भाजपा को मिलने के कयास लगाए जा रहे हैं। पूर्व विधायक मनोहर सिंह व भाजपा के परम्परागत वोटों का लाभ इन्हें मिलना है।

बसपा प्रत्याशी को मुस्लिम व अजा वोटों से उम्मीद

चैथे उम्मीदवार नियाज मोहम्मद खान बिल्कुल नए हैं, बसपा की टिकट लेकर मैदान में उतरे नियाज क्षेत्र के मुस्लिम वोटों और अनुसूचित जातियों के वोटों के साथ अन्य सहयोग की उम्मीद लगाए हुए हैं। इनके साथ अधिकांश मुस्लिम कार्यकर्ता ही नजर आते हैं। मायावती के यहां जनसभा करने हंसे स्थिति में सुधार आने और बदलने की संभावनाएं हैं। इनका व्यवहार और प्रभाव लोगों पर अच्छा होने का लाभ इनको मिलेगा। इनकी भी सभाएं और जन सम्पर्क जोरों पर है। निकटवर्ती सीट डीडवाना से भाजपा द्वारा युनूस खां की टिकट काटे जाने से मुसलमानों में फैले रोष को भुनाने का प्रयास भी रहेगा, हालांकि अभी यह निश्चित नहीं है कि मुस्लिम वोटर्स किधर जाएंगे।

दोनों दलों में भीतरघात की संभावनाएं

आम लोगों का मानना है कि यहां मुख्य मुकाबला कांग्रेस व भाजपा के बीच ही होना है, लेकिन अन्य उम्मीदवारों को छोटा या मामूली मानना भारी पड़ सकता है। यहां दोनों प्रमुख दलों के सामने डैमेज कंट्रोल सबसे बड़ी समस्या है। दोनों पार्टियों में भीतरघात संभावित है। कांग्रेस के टिकट की दौड़ में शामिल लोग असंतुष्ट थे, लेकिन बाद में वे पार्टी के साथ वापस जुड़ गए। हालांकि अब भी कहा जा रहा है कि कांग्रेस प्रत्याशी के साथ भीतरघात की संभावनाएं प्रबल हैं। इसी प्रकार भाजपा के टिकट वितरण से भी अनेक लोग असंतुष्ट हुए, उनमें से अधिकांश तो चुनाव प्रचार में प्रत्यक्षतः उतर गए हैं। यहां ऐसे लोगों के मतभेद और मनभेद मिटाने की आवश्यकता बनी हुई है।

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