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प्राकृत भाषा को संविधान की मानक भाषाओं की सूची में शामिल किया जाए- प्रो. सिंघवी ‘प्राकृत का विकास: समस्याएं और समाधान’ पर व्याख्यान आयोजित

प्राकृत भाषा को संविधान की मानक भाषाओं की सूची में शामिल किया जाए- प्रो. सुषमा सिंघवी

‘प्राकृत का विकास: समस्याएं और समाधान’ पर व्याख्यान आयोजित

लाडनूं। ’प्राकृत का विकास: समस्याएं और समाधान’ विषय पर आयोजित विशेष व्याख्यान में मुख्य वक्ता प्रो. सुषमा सिंघवी ने कहा कि प्राकृत भाषा को रोजगारोन्मुख बनाने की आवष्यकता बताते हुए कहा कि विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों और विद्यालयों में प्राकृत भाषा के पर्याप्त अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था होनी आवष्यक है। उन्होंने यहां जैन विश्वभारती संस्थान के प्राकृत व संस्कृत विभाग के तत्वावधान में आयोजित मासिक व्याख्यानमाला में बोलते हुए आगे कहा कि प्राकृत भाषा के विकास में इसका संविधान की 8वीं अनुसूची में शामिल न होना सबसे बड़ी समस्या है, जबकि यह भाषा भारत के गौरव को बढ़ाने वाली प्रमुख भाषा है। आज अनेक लोग प्राकृत भाषा के बारे में नहीं जानते, क्योंकि वर्तमान में विश्वविद्यालयों, कॉलेजों एवं स्कूल स्तर पर प्राकृत का ज्ञान नहीं दिया जा रहा है। उन्होंने कहा कि प्राकृत भाषा के सम्बंध में विभिन्न चयनित विषयों पर शोध की आवश्यकता भी है। यद्यपि इस कार्य में जैन विश्वभारती संस्थान जैसे अनेक प्रमुख संस्थान लगे हुए हैं।

तकनीक व लघु पाठ्यक्रमों से संभव है प्रसार

प्रो सिंघवी ने कहा कि आमजन नहीं जानता कि प्राकृत नाम की कोई भाषा है। इसलिए प्राकृत के साथ हम ‘भाषा’ शब्द का प्रयोग करना आवश्यक है। प्राकृत भाषा का एक मानक रूप लोगों के समक्ष प्रस्तुत किया जाना चाहिए। अपने इतिहास की प्रामाणिक जानकारी के लिए प्राकृत भाषा को जानना जरूरी है। उन्होंने प्राकृत भाषा के विकास के लिए प्राकृत भाषा में छोटे-छोटे कोर्स बनाए जाने तथा उनमें कहानियों का प्रयोग अधिक से अधिक किए जाने की आवश्यकता बताई। उन्होंने कहा कि प्राकृत साहित्य में वर्णित विषयों को लेकर छोटी-छोटी पुस्तकें लिखी जानी चाहिए। इस भाषा के विकास के लिए भाषा-प्रौद्योगिकी के प्रयोग की भी आवश्यकता है। आधुनिक तकनीक द्वारा इस भाषा को जन-जन तक पहुंचाया जा सकता है।

संस्कृत के बिना प्राकृत का प्रसार संभव नहीं

अध्यक्षीय व्यक्तय में प्रो. दामोदर शास्त्री ने कहा कि जिस प्रकार देश संविधान से चलता है, उसी प्रकार भाषा का संविधान व्याकरण होता है। यदि प्राकृत भाषा के विस्तार के लिए प्राकृत व्याकरण का सम्यक् अध्ययन करना आवश्यक हैं। उन्होंने कहा कि प्राकृत को समझने के लिए संस्कृत व्याकरण को भी समझना आवश्यक है। संस्कृत के बिना प्राकृत का प्रचार-प्रसार संभव नहीं है। क्योंकि प्राकृत की प्रकृति संस्कृत को माना गया है। प्रो. शास्त्री ने प्रो. सिंघवी की इस बात पर सहमति जताई कि प्राकृत अनेक रूपों में प्रचलित है, इसलिए प्राकृत के अनेक रूपों में से एक रूप को मानक भाषा के रूप में स्वीकार करना आवश्यक है। कार्यक्रम का प्रारम्भ छात्र आकर्ष जैन के मंगलाचरण से किया गया। स्वागत भाषण डॉ. समणी संगीत प्रज्ञा ने प्रस्तुत किया, कार्यक्रम का संचालन डॉ. सत्यनारायण भारद्वाज ने किया तथा अन्त में धन्यवाद ज्ञापन सब्यसाची सांरगी ने किया। इस व्याख्यान कार्यक्रम में देश के विभिन्न क्षेत्रों के लगभग 35 प्रतिभागियों ने सहभागिता की।

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