मानवीय सम्वेदनाओं के बिना अस्तित्व को बचाना मुश्किल- प्रो. दूगड़,
दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में वक्ताओं ने बताई शांति की पृष्ठभूमि और प्रतिस्थापना के उपाय
लाडनूं (kalamkala.in)। भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद नई दिल्ली के प्रायोजकत्व में जैन विश्वभारती संस्थान के अहिंसा एवं शांति विभाग के तत्वावधान में यहां सेमिनार हाॅल में ‘शाश्वत शांति प्राप्त करने और सांस्कृतिक विकास को बढ़ावा देने के लिए दार्शनिक साधन’ विषय पर दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का उद्घाटन कुलपति प्रो. बच्छराज दूगड़ की अध्यक्षता और वर्द्धमान महावीर विश्वविद्यालय कोटा के पूर्व कुलपति प्रो. नरेश दाधीच के मुख्य आतिथ्य में किया गया। उद्घाटन समारोह के विशिष्ट अतिथि केन्द्रीय विश्वविद्यालय हिमाचल के प्रो. आशुतोष प्रधान थे तथा मुख्य वक्ता प्रमुख साहित्यकार डा. योगेन्द्र शर्मा भीलवाड़ा रहे।
परस्पर-निर्भरता सहित तीन सिद्धांत आवश्यक
दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के उद्घाटन समारोह की अध्यक्षता करते हुए कुलपति प्रो. बच्छराज दूगड़ ने कहा कि विश्व के सामने दो ही विकल्प हैं कि या तो महावीर, भारतीय मूल्यों और अहिंसा को चुना जाए अथवा महाविनाश के रास्ते पर बढें। हमें इन दोनों में से एक मार्ग पर चलने को कटिबद्ध होना होगा। आवश्यक हे कि हम ऐसी कंडीशन पैदा करें, जो हमारे अस्तित्व को संरक्षित रखने में सहायक हों। आज दुनिया टेक्नोक्रेट के चरम तक पहुंच चुकी है, लेकिन पड़ौसी के घर के दरवाजे तक हम नहीं पहुंचे। भले ही कितने की टैक्नोक्रेट बन जाएं, पर जब तक मानवीय सम्वेदनाएं नहीं हैं, तो हम अस्तित्व को नहीं बचा सकते। उन्होंने भारतीय संस्कृति व जैन दर्शन के अनुसार तीन सिद्धांतों को आवश्यक बताया तथा कहा कि दूसरे सभी प्राणियों को अपने समान समझनने से उनके प्रति दुर्भावना नहीं आ पाती। दूसरा परस्परता यानि सभी प्राणियों का जीवन एक-दूसरे पर निर्भर होना, जिसमें आत्मनिर्भरता के बजाए परस्पर-निर्भरता को महत्व देना जरूरी है, क्योंकि आत्मनिर्भरता से कट्टर राष्ट्रवाद और कट्टर व्यक्तिवाद बढता है। तीसरा है अपरिग्रह सिद्धांत यानि अपनी इच्छाओं का परिसीमन करना। जो कुछ मिल गया है, उसकी सुखानुभूति के बजाय जो नहीं मिल पाया, उसके दुःख की अनुभूति अनुचित होती है। ये सभी भारतीय मूल्य ही विश्व में चिर शांति के लिए आवश्यक हैं।
व्यवस्थागत हिंसा को मिटाने के लिए नियम बदलने जरूरी
मुख्य अतिथि प्रो. नरेश दाधीच ने अपने सम्बोधन में व्यवस्थागत हिंसा को समाप्त करने के लिए समाज के विभिन्न नियमों को बदलने की जरूरत पर बल दिया और समाज में शांति स्थापित करने के लिए शांति प्राप्त करने के तरीकों एवं शांति के आधार को समझने की आवश्यकता बताई। उन्होंने यह जानने की आवश्यकता बताई कि व्यक्ति अशांत होता क्यों है। उन्होंने कहा कि हर व्यक्ति का स्वभाव व मान्यताएं अलग-अलग होती हैं और वे ही उसके अशांत होने का कारण बनती है। मुख्य वक्ता प्रमुख साहित्यकार डा. योगेन्द्र शर्मा ने त्रेता युग, द्वापर युग और आज तक के शांति प्रयासों के बावजूद शांति नहीं होने को व्याख्यायित किया और कहा कि अधिकांश युद्ध शांति की बहाली के लिए राष्ट्र में अशांति के जिम्मेदार दुष्टों के संहार के लिए किए जाते रहे हैं, जो आवश्यक होते हैं। भारत ने कभी पहले आक्रमण नहीं किया, पहले युद्ध का प्रयास नहीं किया। उन्होंने वीरों की शहादत का उदाहरण देते हुए कहा कि यह बलिदान देश में हम शांति और अहिंसा से रह सकें और सीमाओं पर शांति बनी रहे, इसके लिए वीरों ने अपने प्राणों की आहुतियां दी। विशिष्ट अतिथि प्रो. आशुतोष प्रधान ने देश के विकास के लिए शांति को जरूरी बताया और राष्ट्र रक्षा सम्बंधी अनेक उदाहरण दिए। कार्यक्रम के प्रारम्भ में अहिंसा एवं शांति विभाग के विभागाध्यक्ष डा. बलबीर सिंह ने अतिथियों का परिचय प्रस्तुत किया और स्वागत वक्तव्य दिया। कार्यक्रम संयोजन सचिव डा. लिपि जैन ने राष्ट्रीय संगोष्ठी के विषय का प्रवर्तन किया। संगोष्ठी का प्रारम्भ मुमुक्षु बहिनों के मंगलगान के साथ किया गया। अंत में डा. रविन्द्र सिंह राठौड़ ने आभार ज्ञापित किया।
